जिस्म मे घुघरूओ की रून झु

मेरे जिस्म में,
घुंघरूओं की,
रून झुन,बज जाती है
मेरे दोनों हाथों में,
तितलियाँ अपने
पंखों के रंग बिखराकर
उङ जाती हैं,
उनके पंखों से,
मेरे हाथों में मेहंदी लग जाती है।

धूप मे जलता हुआ,
नीला आसमाँन,
शायद,
फिर मेरी ज़मी पर,
उतर आया है
आफ़ताब,
इधर से उधर गश्त करता करता है,
माहताब मेरे दामन में सिमट आया है-

चिड़ियों की चहचहाहट,
फूलों की महक,
मेरे चारों सम्त,
रक़्स करती मंडरा रही है,
निचले कमरे से,
प्यानो की आवाज़,
दिल के तारों को,
छेड़ती जा रही है।

मै,
चुपचाप खड़ी,
दम-बखु़द,
अपने ही साया-ए-दीवार को
निहार रही हूँ,
अपने ही अक्स में,
किसी को, ढूंढती हूँ,

फिर आसमान की तरफ़
सर उठाकर कहकशां में,
शायद,
खु़द को ही, ढूंढ रही हूँ —-‘-मैं——!!

बुशरा रज़ा—–01/01/17—-12:30am

Leave a Comment